जब तेरे अस्तित्व से
समागम हुआ था, तो
एक विचित्र सी
हलचल - एक सिहरन
दौड गयी
मेरे समस्त शरीर में
धीरे-धीरे यह सिहरन
एक रूप धारण करने लगी !
मगर -अचानक
तुम्हारा अस्तित्व छूट गया
मेरे हाथों में से रेत की तरह !
मेरे गर्भ मे पलने वाली
आकांक्षा , अचानक
एक पाप का रूप
धारण कर गई
किसी पिता के अभाव में !
कुछ दिन स्त्ब्ध रह कर
उस आकांक्षा से मुक्ति पाने हेतु
मैंने गर्भपात करवा लिया
और अब एक बार फिर
'कुंआरी' बन गई हूँ,
किसी विधिवत समागम हेतु !
© सर्वाधिकार सुरक्षित -राजीव शर्मा( मेरे साथ कार्यरत )
1 comment:
बहुत गहन रचना...राजीव जी को बधाई..
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